भारतीय संस्कृति में मनुष्य का जीवन सर्वोपरि उद्देश्य, धर्म ,अर्थ, काम, और मोक्ष की प्राप्ति है। इन चारों ही को पाने का वास्तविक साधन पूर्ण स्वास्थ्य है।आज स्वास्थ्य मनुष्य न तो धर्म का यथावत पालन कर सकता है। ना धन कमा सकता है, और मोक्ष की बात तो जानी ही दीजिए। वस्तुतः जीवन की सार्थकता और सुख प्राप्ति में तंदुरुस्ती का सबसे बड़ा उपयोग है। कहावत भी है," एक तंदुरुस्त हजाम हजार नियामत" तंदुरुस्ती एक तरफ और संसार की हजारों सुख एक तरफ विद्या बुद्धि धन वैभव कीर्ति सम्मान आदि सब तरह की सुख साधन जिसको प्राप्त है, वह यदि पूर्ण स्वस्थ नहीं है तो उसके लिए भी साधन किस काम की दुरुस्त भिकारी रोगी करोड़पति से अधिक सुखी रहता है। शरीर से चंगा और मेहनत करके सुख की नींद सोता है ।परंतु रोगी धनवान बढ़िया से बढ़िया भोजन पाकर भी उसको खा ही नहीं सकता। क्योंकि पचा नहीं पाते तो वह अधिक चल फिर नहीं सकता ना अन्य श्रम कर सकता है। सांसारिक भोग सकता है और ना सुख की नींद सो सकता है ।इसीलिए पूरे जीवन में सफलता पूर्वक भोगने के लिए नेतृत्व, राज कार्य ,व्यवसाय ,नौकरी, धन-उपार्जन, समाज और देश की सेवा कीर्ति, अर्जन आदि सब के लिए सबसे पहली और अनिवार्य आवश्यकता तंदुरुस्ती है ।जीवन का सार ही स्वास्थ्य है।
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यम मूलमुत्तमॖ ।
रोगास्तस्यापहरतार:श्रयसो जीवितस्य च।।
ऐसी होनी चाहिए जीवन शैली -
(1) दिनचर्या -
स्वास्थ्य की विचार से दिन रात में क्या काम ,कब और किस प्रकार करना चाहिए इसके कुछ नियम प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन परंपरा में चले आ रहे हैं। आधुनिक शिक्षित नई सभ्यता के फेर में उन प्राचीन नियमों की उपेक्षा करते हैं। इस कारण पूर्ण स्वस्थ नहीं रहती। दिनचर्या और रात्रिचर्या प्राचीन नियम हमारी देश की जलवायु और सामाजिक स्थिति के अनुकूल निर्धारित है। इसलिए पूर्ण स्वस्थ रहने की इच्छा रखने वाली हर भारतवासी को इनका अवश्य पालन करना चाहिए।
प्रातः काल उठना - नितिन सूर्योदय से इतना पहले जाकर बिस्तर छोड़ देना चाहिए कि अन्य कार्य से निवृत्त होकर साफ सुथरा और प्रसन्न मन से उगते हुए नए सूर्य का स्वागत करने को पहले से ही तैयार रहें। गर्मी के दिनों में सुबह 4:00 बजे और जाने में पांच 5:30 बजे अवश्य बिस्तर छोड़ देना चाहिए सूर्योदय से चार घड़ी पूर्व के समय को हमारी पूर्वजों ने ब्रह्म मुहूर्त अर्थात सबसे उत्तम समय कहा है। अन्य पशु पक्षी और नवजात शिशु को समय अवश्य जाग जाते हैं। इस समय सो कर उठने का प्राकृतिक नियम है। सूर्योदय से पूर्व के सपने देखना या खो देना बड़ा ही लज्जाजनक है।
जितनी देर तक सोने की आदत हो उन्हें तुरंत सुधार करना चाहिए। आरंभ में कुछ कठिनाई हो सकती है। परंतु धीरे-धीरे अपने आप सुबह जल्दी उठने की आदत पड़ जाएगी। नियम पूर्वक सूर्योदय से 1 घंटे पूर्व और जाने से स्वास्थ्य पर तत्काल उत्तम प्रभाव पड़ने लगता है। चेहरे पर तेज और लाल-लाल आई आजादी है शरीर फुर्तीला बलवान और सुंदर दिखाई देने लगता है। मन अपूर्व आनंद का अनुभव करता है।
ठंडा पानी पीना - सुबह उठते ही जो लोग 'बैडटी' के नाम से गरमा गरम चाय पीते हैं । वे अपने आप से और शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति बहुत बड़ा अन्याय करते हैं। सीत प्रधान जलवायु वाले यूरोपीय देशों में सुबह-सुबह गर्म चाय पीने की प्रथा उचित हो सकती है। परंतु हमारे लिए उनकी नकल करना एकदम हितकर है। भारत जैसे उसने जलवायु वाले देश में तो सुबह उठते ही ठंडा जल पीना अत्यंत लाभकारी होता है ।
सैर करना - संसार की सर्वश्रेष्ठ विद्वानों विचारकों और वैज्ञानिकों का यह निश्चित मत है कि प्रातः काल को शुद्ध वायु में टहलना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हितकर है। इसीलिए प्रातः काल सभी कार्यों से निवृत्त होकर बस्ती के बाहर खुली हवा में कुछ दिन अवश्य टहलना चाहिए विद्यार्थी जो खेलकूद में काफी परिश्रम कर लेते हैं। जो प्रातः घूमने के बजाय उस समय का उपयोग अपनी पढ़ाई की याद रखने योग्य अर्थों और विषयों की पुनरावृत्ति में किया करें। प्रातः काल का समय मनन करने के लिए सर्वोत्तम होता है ।क्योंकि उस समय बुद्धि ताजी और निर्मल होती है तथा मस्त तीव्र होती है किसी प्रकार का हल नहीं होता। इसलिए परंतु जो अन्य बुद्धिजीवियों को प्रार्थना आवश्यक है। घूमने में झुका हुआ है। इस तरफ घूमने से अधिक सकते हैं थकावट भी काम आती है। एकाध मील धीरे-धीरे दौड़ लगाई जाए और मंदाग्नि रोग में तत्काल लाभ होता है।
(2) स्वच्छता -
जैसे स्वास्थ्य प्रसंग में सबसे पहली मानसिक स्वास्थ्य पर विचार किया गया वैसे ही स्वच्छता के विषय में भी सर्वप्रथम मानसिक स्वच्छता के विषय में समझना आवश्यक है। मन से स्वच्छ व्यक्ति ही शरीर से स्वस्थ रह सकता है। यदि मन ही साफ सुथरा नहीं तो अनायास ही ऐसी आचरण होगी जिससे अपना शरीर तो गंदा और रोगी बनेगा ही बुरे आचरण ओं का प्रभाव सामूहिक स्वास्थ्य पर भी निश्चित पड़ेगा और समूह की हानि होगी आयुर्वेद के मतानुसार सब रोगों की जड़ प्रज्ञा पराध होता है। वह प्रज्ञा पराध मानसिक अस्वच्छता के कारण ही होता है ।मन स्वच्छ रहे तो बुद्धि में विकृति होगी ही नहीं मानसिक स्वच्छता का अर्थ है।हमारा मन और आत्मा दो सहित सच संतोषी श्रम शील सचेत और निर्विकार हो अर्थात काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि विचारों सेमन विकृत ना हो ऐसा होने से मनुष्य स्वभाव और चरित्र का धनी आदर सफलता वाला प्रतिष्ठित संपन्न स्वस्थ और जीवन की हर दिशा में यशस्वी होता है मानसिक स्वच्छता के साधन रूप में प्राचीन भारतीय परंपरा अधिक होती है ।संध्या वंदन अग्निहोत्र ध्यान जप साधना बड़ी स्वाध्याय आदि क्रियाओं से मानसिकता होती है। संध्या बंधन से मनुष्य का मानसिक विकास होता है ।और धैर्य एवं संयम की भावना का उदय होता है बाहर की वृद्धि होती है भी दर्द होता है। मनुष्य में भूतों की भावना प्रबल होती है। सभी को अपने समान ही समझने की शुद्धि आती है ,और वह सहज गति से सदा चार मुखी बनता है आधुनिक काल में साधन बहुल तक की आकांक्षा मित्रों की दुष्ट प्रवृत्ति बस जो नैतिक हीनता एवं उन्माद आदि विकार बढ़ रहे हैं। उनके निराकरण हेतु भी मानसिक स्वच्छता उपयोगी हो सकते हैं।
शरीर की भूतों की भीतरी अंगों की सफाई की स्वचालित मशीन भी कर देती है। परंतु बाहरी अंग प्रत्यंगो की सफाई की पूरी जिम्मेदारी की स्वयं पर होती है ।शरीर की जो भाग अधिकांश खुले रहते हैं। उन पर वायु के साथ उड़ने वाली धूल कर और अन्य मेल हरनेस जानते रहते हैं। उन्हें सपना करने से रोगी होना निश्चित है। कुछ अंग तो इतने महत्वपूर्ण है। कि उनकी सफाई और सुरक्षा के लिए विशेष रूप से तत्पर रहना चाहिए। जिनमें आंख, कान, जीभ।
(3) व्यायाम -
पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, , हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, शवासन , मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन, ताड़ासन, वृक्षासन, अर्धचंद्रमासन, अर्धचक्रासन, दो भुज कटिचक्रासन, चक्रासन, पादहस्तासन, शीर्षासन, मयुरासन, सूर्य नम:स्कार।
अन्य आसन -
1.वृश्चिक आसन,
2.भुजंगासन,
3. मयूरासन,
4. सिंहासन,
5. शलभासन,
6. मत्स्यासन
7.बकासन
8.कुक्कुटासन,
9.मकरासन,
10. हंसासन,
11.काकआसन
12. उष्ट्रासन
13.कुर्मासन
14. कपोत्तासन,
15. मार्जरासन
16.क्रोंचासन
17.शशांकासन
18.तितली आसन
19.गौमुखासन
20. गरुड़ासन
21. खग आसन
22.चातक आसन,
23.उल्लुक आसन,
24.श्वानासन,
25. अधोमुख श्वानासन,
26.पार्श्व बकासन,
27.भद्रासन या गोरक्षासन,
28. कगासन,
29. व्याघ्रासन,
30. एकपाद राजकपोतासन।
(4) आहार -
पूर्ण शास्त्र के तीन मूल आधारों में प्रथम स्थान आहार का है। मुख्य रूप से अधिक भोजन ही आहार की संख्या में गिने जाते हैं ।तथापि अन्नादी के अतिरिक्त जल और वायु भी शरीर के लिए अनिवार्य आहार हैं ।शरीर की क्षतिपूर्ति और शक्कर राजन को केवल भोजन से ही होता है ।जल भोजन का प्रधान सहायक है ।उससे भोजन के पाचन प्रदूषण में सहायता मिलती है। शरीर के तीन अनिवार्य घटक है ।भोजन जल और वायु यह तीनों ही तरह उनकी आहार में अंतर्गत आ जाते हैं ।
भोजन स्वादिष्ट और सुपाच्य होना चाहिए ।
(5) रात्रिचर्या -
दैनिक जीविका कार्य या पढ़ाई से बढ़कर एक बार शाम को शेयर करना चाहिए रात को 7:00 से 8:00 के बीच रात्रि का भोजन कर लेना चाहिए। यह समय 12 माह के लिए ठीक है ।भोजन की अनंतर थोड़ी देर टहलना चाहिए कुछ देर घर में बच्चों से विनोद वार्ता करनी चाहिए। रात्रि के 9:00 से 10:00 भगवान नाम स्मरण करते हुए सो जाना चाहिए ।नित्य निश्चित समय पर सो जाना स्वास्थ्य के लिए परम हित कर अभ्यास होता है।
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